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Showing posts from April, 2019

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स्वर - साधना

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sangeet guru संगीत की  online classes  के लिए संपर्क करें   +91 6396247003 (CALL OR WHATSAPP) सृष्टि की उत्पत्ति का मूल वाक्' को मन जाता है | वाक् के चार प्रकार होते है, परा, पश्यन्ति ,  मध्यमा और वैखरी  इसी वाक् को भारतीय वाड्मय  में शब्द  नाद  आदि संज्ञाओ से निर्दिष्ट किया जाता है  | वाक् के आधार पर ही पुरे संसार का व्यवहार  परिचालित होता है  |  वाक्  के दो रूप होते है    (1) नादात्मक और  (2)  वर्णात्मक  नादात्मक  वाक्  ----- नादात्मक  वाक् आवेग रूप  चित्तवृत्ति  का सूचक होता  है  वर्णात्मक वाक् https://youtu.be/4UvrGR9OGxY?si=hBQMiJslG5zJwjlb   वर्णात्मक वाक् वर्ण से सम्बन्ध होने के कारण  विचार का निदेशक होता  है |     जिस प्रकार भावो के आवेग में अश्रु  पुलक ; कंप इत्यादि  भाव बिना किसी प्रयत्न के स्वत ; ही  प्रकट हों जाते है  |  उसी प्रकार हर्ष, शोक ,  कृध आदि के आवेग में  की इन वुत्त्व्रत्तियो के सूचक ध्वनियअ मनुष्य के मुख से  स्वत ; निकल पड़ती है  | इसी प्रकार की ध्वनिय  संगीत के मूल में भी है  मानव शरीर को "गात्र - वीणा " या शारीरी वीणा भ

स्वरों की उत्पति कैसे हुई

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स्वरों की उत्पति वैदिक काल  में तीन स्वरों का प्रचार था और वे स्वर थे - उदात्त, अनुदात्त, तथा स्वरित।  उदात्त ऊँचे स्वर को  कहते थे तथा अनुदात्त नीचे स्वर को कहते थे स्वरित स्वर के लिए कोई निश्चित मत नहीं था  कुछ लोग इस स्वर को उदात्त तथा अनुदात्त स्वर  के बीच का स्वर मानते थे। कुछ लोग इसे उदात्त से ऊंचा स्वर मानते थे और कुछ लोग इसे अनुदात्त स्वर से नीचे स्वर मानते थे। इस प्रकार उदात्त अनुदात्त और स्वरित ये तीनो स्वर थे जो क्रमशः गांधार ऋषभ तथा षडज स्वरों के समान माने जा सकते हैं।  वैदिक काल में इन तीनों स्वरों को प्रथमा,द्वितीया,तथा तृतीया नामों से पुकारा जाता था। ऐसा हो सकता है कि गंधार स्वर प्रथम होने के उस समय गंधार ग्राम  प्रचार था।    कुछ समय के बाद वैदिक काल में ही इन तीन स्वरों के अलावा गांधार से एक ऊंचा स्वर ' चतुर्थ ' प्रचार में आया इस चौथे स्वर को ही कुछ लोग ' कुष्ठा ' नाम से पुकारते थे। और इसे माध्यम स्वर के अनुरूप ही मानते थे। इस प्रकार से अब कुल मिलाकर 'सा रे ग म ' ये चार स्वर प्रचार मे आ गए थे।  मध्यम स्वर के आने से माध्यम ग्रा

श्रुति और स्वर विभाजन के बारे में (division between shruti and note)

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श्रुति और स्वर-विभाजन के बारे में  श्रुति-स्वर-विभाजन को समझने से पहले हमें श्रुति और स्वर को समझना चाहिए। श्रुति - संस्कृत में 'श्रु 'शब्द का अर्थ होता है सुनना।  इसलिए श्रुति का अर्थ हुआ 'सुना हुआ    '  प्राचीन ग्रंथकारों ने भी श्रुति की परिभाषा इसीप्रकार ही दी है। 'श्रूयते इति श्रुतिः'। अर्थात जो ध्वनि कानों को सुनाई दे वही श्रुति है परन्तु ये परिभाषा अपूर्ण प्रतीत होती है क्योंकि सुनाई तो बहुत सी ध्वनियाँ देती हैं श्रुति का संगीतोपयोगी होना आवश्यक है और कानों को तो अनेक ऐसी ध्वनियाँ सुनाई देती रहती हैं जिनका संगीत से कोई सम्बन्ध नहीं होता इसलिए केवल इतना कह देना कि जो ध्वनि कानों को सुनाई पड़े वही श्रुति है, पर्याप्त नहीं है। श्रुति की पूर्ण परिभाषा इस प्रकार है -- नित्यं    गीतोपयोगित्वमभिज्ञेयत्वमप्युत । लक्षे  प्रोक्तं  सुपर्याप्तं  संगीत  श्रुतिलक्षणम।। अर्थात वह संगीतोपयोगी ध्वनि जो एक दूसरे से अलग तथा स्पष्ट पहचानी जा सकें उसे श्रुति कहते हैं। 'अलग' तथा 'स्पष्ट'  यहाँ पर बहुत ही महत्वपूर्ण है

मार्गी तथा देशी संगीत (margi and deshi music)

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 मार्गी तथा देशी संगीत  प्राचीन काल में संगीतज्ञों ने शास्त्रीय संगीत को दो भागों में विभाजित किया था - (१) मार्गी संगीत अथवा मार्ग संगीत     (२) देशी संगीत अथवा गान  (१ ) मार्गी संगीत अथवा मार्ग संगीत   - अति प्राचीन काल में ऋषियों ने जब ये देखा की संगीत में मन को एकाग्र करने की एक अद्भुत प्रभावशाली शक्ति है तभी से वे इस कला का प्रयोग परमेश्वर की आराधना के लिए करने लगे।  संगीत परमेश्वर-प्राप्ति का प्रमुख साधन माना जाने लगा।  लोगों का ये विचार था कि 'ॐ' शब्द ही नाद ब्रह्म है। संगीत का उद्देश्य निश्चित करने के बाद संगीत विद्वानों ने इसे कड़े नियमों में बांधने का प्रयत्न किया। भरत मुनि ने इस नियमबद्ध संगीत को, जो ईश्वर प्राप्ति का साधन माना जाता है,  मार्गी संगीत अथवा मार्ग संगीत कहकर पुकारा।  कहा जाता है कि मार्ग संगीत ब्रह्मा जी ने भरत मुनि को सिखाया भरत मुनि ने भगवान शंकर के समक्ष इसका प्रदर्शन गन्धर्व और अप्सराओं से करवाया, इस संगीत को  केवल गन्धर्व ही गाया करते थे इसलिए इसको गान्धर्व- संगीत भी कहकर पुकारा जाता है।  मार्गी संगीत अचल संगीत माना जाता है,

रियाज़ अभ्यास करते समय आवश्यक बातें (new post )

रियाज़ अभ्यास करते समय आवश्यक बातें  (new post ) deep breathing की practice करनी चाहिए इसमें दोनों नथुनों से तेज़ी से गहरी साँस लेकर उसे धीरे धीरे छोड़ना चाहिए और अगर प्राणायाम कर रहे हैं तो वो किसी कुशल प्रशिक्षक की निगरानी में करें तो ज़्यादा लाभप्रद है। इससे सांस की speed और उसके आवागमन पर पूरा नियंत्रण प्राप्त हो जायेगा।  vocal chord अपना काम अच्छी तरह से करें इसके लिए आवाज़ लगाते वक़्त आवाज़ की गति तालु के ऊपरी भाग की तरफ होनी चाहिए और गले पर ज़ोर कभी नहीं डालना चाहिए इस तरह आवाज़ लगाने से साँस स्वतंत्रता से आएगी जायेगी।  तेज़ी से साँस लेना और धीरे धीरे छोड़ना चाहिए जैसा कि पहले ही बताया गया है और हाँ कोशिश ये करनी चाहिए कि जब आप तेज़ी से साँस ले रहे हों तब साँस लेने की तनिक आवाज़ न हो तो उत्तम है किन्तु आजकल गानों में साँस की भी आवाज़ include की जाने लगी है और कभी कभी recording  studios में इसकी ज़रुरत भी पड़ती है। हैं न कमाल की बात,  हमने तो यही सीखा कि साँस की आवाज़ न आये लेकिन वक़्त बदलने के साथ साथ कुछ नियम बदलते हैं कुछ modified और कुछ नदारद ही हो जाते हैं।  फ़िलहाल कहने

आवाज़ को बेहतर कैसे बनाएं

आवाज़ को बेहतर कैसे बनाएं  संगीत रुपी भवन के दो स्तम्भ स्वर और लय कहे जाते हैं। इन दोनों स्तंभों का अभ्यास  संगीत की साधना कहलाती है। क्योंकि गायन में स्वर का प्रमुख स्थान होता है इसलिए कण्ठ को गाने योग्य बनाने को ही स्वर साधना कहते हैं।  गले (कण्ठ) का सुरीला व सुमधुर होना बहुत हद तक ईश्वरीय देन होती है  किन्तु अभ्यास के द्वारा इसे ज़्यादा से ज़्यादा सुरीला गाने लायक बनाया जा सकता है। इसके लिए सतत  कड़े  ज़रुरत पड़ती है। एक आवश्यक बात कि जो आवाज़ ध्रुपद गायन के योग्य हो तो उससे ठुमरी गायन की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए इसी तरह ठुमरी के योग्य आवाज़ से ध्रुपद की आशा नहीं करनी चाहिए। गायन में विकृति तभी आती है जब किसी विधा को उपयुक्त कंठ स्वर  हैं।  रियाज़ अभ्यास करते समय आवश्यक बातें   घर बैठे online पैसे कमाने के लिये click https://shortlink.biz/44136 स्वर पर स्व भाव का अधिक प्रभाव पड़ता है। हमने अकसर देखा है कि क्रोधी और चिड़चिड़े व्यक्ति का स्वर कर्कश और अप्रिय होता है उसकी आवाज़ में रस  की बात है जबकि की सहृदय,सज्जन और मधुर भाषी लोगों  का स्वर भी मधुर होता है। इसलिए हमें अपने व्यक्त