स्वरों की उत्पति
वैदिक काल में तीन स्वरों का प्रचार था और वे स्वर थे - उदात्त, अनुदात्त, तथा स्वरित। उदात्त ऊँचे स्वर को कहते थे तथा अनुदात्त नीचे स्वर को कहते थे स्वरित स्वर के लिए कोई निश्चित मत नहीं था कुछ लोग इस स्वर को उदात्त तथा अनुदात्त स्वर के बीच का स्वर मानते थे। कुछ लोग इसे उदात्त से ऊंचा स्वर मानते थे और कुछ लोग इसे अनुदात्त स्वर से नीचे स्वर मानते थे। इस प्रकार उदात्त अनुदात्त और स्वरित ये तीनो स्वर थे जो क्रमशः गांधार ऋषभ तथा षडज स्वरों के समान माने जा सकते हैं। वैदिक काल में इन तीनों स्वरों को प्रथमा,द्वितीया,तथा तृतीया नामों से पुकारा जाता था। ऐसा हो सकता है कि गंधार स्वर प्रथम होने के उस समय गंधार ग्राम प्रचार था।

कुछ समय के बाद वैदिक काल में ही इन तीन स्वरों के अलावा गांधार से एक ऊंचा स्वर ' चतुर्थ ' प्रचार में आया इस चौथे स्वर को ही कुछ लोग ' कुष्ठा ' नाम से पुकारते थे। और इसे माध्यम स्वर के अनुरूप ही मानते थे। इस प्रकार से अब कुल मिलाकर 'सा रे ग म ' ये चार स्वर प्रचार मे आ गए थे। मध्यम स्वर के आने से माध्यम ग्राम भी प्रचार में आ गया। वैदिक स्वरों में षडज पंचम भाव की प्रधानता थी। और इस कारण पंचम, धैवत, निषाद,ये तीन अन्य स्वर भी प्रचार में आ गए थे।
स्वर-सम्वादित्व के अनुसार प्रथमा अथवा उदात्त के अंतर्गत गांधार तथा निषाद स्वर हुए, द्वितीया अथवा अनुदात्त के अंतर्गत ऋषभ तथा धैवत स्वर हुए और तृतीया अथवा स्वरित के अंतर्गत षडज, मध्यम और पंचम स्वर हुए इस तरह से सातों स्वर प्रचार में आये।
नारद मुनि द्वारा रचित ग्रन्थ 'नारदीय शिक्षा ' में इस बात का उल्लेख मिलता है--
उदात्ते निषादगांधारौ, अनुदात्त ऋषभधैवतौ।
स्वरितप्रभवा ह्येते, षड्जमध्यमपञ्चमः।।
पाणिनि के समय तक संगीत के सातों स्वर प्रचार में आ गए थे यही ७ स्वर और उनके ५ विकृत रूपों को मिलाकर कुल १२ स्वर आजकल प्रचार में हैं।
प्राचीन समय में कुछ लोगों का विचार ये था कि ७ स्वरों की उत्पत्ति अनेक पशु पक्षियों द्वारा हुई ग्रंथों में भी ये वर्णित है कि
मयूर चटकाछाग क्रौञ्च कोकिल दुर्दुरा।
गजश्च सप्त षड्जादोँकृमा दुच्चार्यान्त्यमी।।
अर्थात मयूर से 'सा' चातक से 'रे' छाग से ग क्रौञ्च से 'म' कोकिल से 'प' दादुर से 'ध' तथा हस्ति से 'नि' स्वर उत्पन्न हुआ।
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to be continued .....
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