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स्वर - साधना

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सृष्टि की उत्पत्ति का मूल वाक्' को मन जाता है | वाक् के चार प्रकार होते है,

परा, पश्यन्ति ,  मध्यमा और वैखरी 

इसी वाक् को भारतीय वाड्मय  में शब्द  नाद  आदि संज्ञाओ से निर्दिष्ट किया जाता है  | वाक् के आधार पर ही पुरे संसार का व्यवहार  परिचालित होता है  |  वाक्  के दो रूप होते है 
 
(1) नादात्मक और  (2)  वर्णात्मक 


नादात्मक  वाक् -----

नादात्मक  वाक् आवेग रूप  चित्तवृत्ति  का सूचक होता  है 

वर्णात्मक वाक्

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वर्णात्मक वाक् वर्ण से सम्बन्ध होने के कारण  विचार का निदेशक होता  है |  
 




जिस प्रकार भावो के आवेग में अश्रु  पुलक ; कंप इत्यादि  भाव बिना किसी प्रयत्न के स्वत ; ही  प्रकट हों जाते है  |  उसी प्रकार हर्ष, शोक ,  कृध आदि के आवेग में  की इन वुत्त्व्रत्तियो के सूचक ध्वनियअ मनुष्य के मुख से  स्वत ; निकल पड़ती है  | इसी प्रकार की ध्वनिय  संगीत के मूल में भी है 




मानव शरीर को "गात्र - वीणा " या शारीरी वीणा भी  कहा जाता है  |  जब शरीर से कोई ध्वनी  निकलती है  तो उसकी प्रक्रिया  भी वही होती है ,जो एक वाद्य के द्वारा संपन्न  होती है  | शरीर से निकलने वाली ध्वनि को " शब्द " और वाद्य से निकलने वाली ध्वनि  को " स्वर" कहते है  |

 कष्ठ - संस्कार , स्वर , साधना  या कंठ साधना को अंग्रेजी में वाएस कल्चर ( VOICE CULTURE  ) कहते है इसको परिभाषित करते हुए कहा गाया है की ( properly trained  voce is useful for music ) अर्थात  अच्छी तरह से परिष्कृत की गयी आवाज़  संगीत के लिए उपयोगी होती है  |   मनुष्य की आवाज़ मोटी, पतली  कर्कश , कैसी भी क्यों न हों सही प्रकार से साधना करने से उसको भी सुरीला  व मधुर बनाया जा  सकता है वैदिक काल में जब छोटे बच्चो को वेद - पाठ की शिक्षा दी जाती थी तब उसी के माध्यम  से उनका कंठ स्वत, संस्कारित हो जाया करता था | 


उदात्त (ऊंचा) अनुदात्त (नींचा) और स्वरित (सम) स्वरों के प्रयोग द्वारा उच्चारित किये जाने वाले यन्त्र ताभी सार्थक हुआ करते थे जब उन्हें निश्चित ध्वनियों पर निश्चित परिमाण में और निश्चित बलय - घातों द्वारा प्रयुक्त किया जाता था  दवानी विज्ञान से सम्बंधित सभी तथ्य सामगान में निहित थे, इसलिए भारतीय परंपरा में कंठ संस्कार या स्वर साधना के लिए किसी अन्य शास्त्र को विकसित करने की आवश्यकता ही नहीं समझी गई |





ॐ के उच्चारण  से लय व्यवस्थित होती थी तथा स्वर की ऊर्जा  और गति  नियंत्रित होकर  गायन को प्रभावशाली  बनाती थी इसी से आधार -स्वर  घनीभूत हों जाता था जिससे सभी स्वर और श्रुतिया परिपक्व हो जाती थी | 
संगीत के घरानों के विकास साथ-साथ अलग - अलग तरीके से स्वर केविकास की पराम्पराए विकसित हुई किराना घराने की मिठास को बरकार रखने केलिए  खुली आवाज़ लगाने की अपेक्षा  कृत्रिम आवाज़ लगाने पर अधिक बल दिया जाता  था 




आगरा घराने में ध्रुपद -धमार का प्रचार अधिक था इसलिए आवाज़ को दमदार बनाने  की और विशेष ध्यान दिया गाया | जयपुर घराने की गायकी  में लयकारी की प्रधानता थी इसीलिए विभिन्न  लय के पलटो का अभ्यास कराकर 
 आवाज़ में खासियत पैदा की जाति थी | ग्वालियर घराने के बंदिशों एवं तानो की प्रकृति के अनुसार  कंठ -साधना की आधुनिक तकनिकी का प्रयोग किया गाया | निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है की जितने घराने बने उतनी ही कंठ -संस्कार से सम्बंधित पद्यति भी विकसित हुई  | लेकिन इतना तो निनिर्वाद रूप से कहा जाता है की भारतीय कंठ - संस्कार का मूल 'ओंकार ' की ध्वनि में निहित है जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्राण है  | 


(  कंठ साधना की पाश्चात्य परंपरा  ) 

इसाई धर्म के प्रचार के साथ  ही पश्चिम में भी कंठ- संस्कार या कंठ - साधना का प्रादुर्भाव हो गाया था शरीर विज्ञान  की सहायता से उन्हें कंठ पाठ की रचना का  ज्ञान हो गाया  था,  किन्तु ध्वनी निर्माण  और उससे उत्त्पन्न गुण दोष के बारे में वह अनभिज्ञ थे | वैज्ञानिकों संगीतज्ञो में  एमिल बैंके , अर्नेस्ट जी वहाईट , एच एच एल्बर्ट ,तथा जे लुइयास आर्तन के नाम विशेष उल्लेखनीय थे | इन सभी के बाद  कंठ संस्कार के बारे में सर्वाधिक उपयोग सिन्धांत का प्रतिपादन डा .डी स्तैन्लो  ने किया | आवाज़ के निर्माण में  सहयोग  देने वाले  अवयवो को इन्होने तीन भागो में विभाजित किया --

(1 ) गति देने वाला (actuator)
(2) आन्दोलन पैदा करने वाला ( vibrator)
(३) गूंज पैदा करने वाला (resonator)   | 
 








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