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सृष्टि की उत्पत्ति और नाद
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सृष्टि की उत्पत्ति और नाद
सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ प्रारंभ हुई। जब प्रथम महास्फोट (बिग बैंग) हुआ, तब आदि नाद उत्पन्न हुआ। उस मूल ध्वनि को जिसका प्रतीक ‘ॐ‘ है, नादब्रह्म कहा जाता है। पांतजलि योगसूत्र में पातंजलि मुनि ने इसका वर्णन ‘तस्य वाचक प्रणव:‘ की अभिव्यक्ति ॐ के रूप में है, ऐसा कहा है।
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माण्डूक्योपनिषद् में कहा है -
ओमित्येतदक्षरमिदम् सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिपि सर्वमोन्कार एवं ।
यच्यान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव।
माण्डूक्योपनिषद्-१॥
अर्थात् ॐ अक्षर अविनाशी स्वरूप है। यह संम्पूर्ण जगत का ही उपव्याख्यान है। जो हो चुका है, जो है तथा जो होने वाला है, यह सबका सब जगत ओंकार ही है तथा जो ऊपर कहे हुए तीनों कालों से अतीत अन्य तत्व है, वह भी ओंकार ही है।
वाणी विज्ञान के अनुसार -
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५
अर्थात् वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-
१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी
वाणी की उत्पत्ति
वाणी कहां से उत्पन्न होती है, इसकी गहराई में जाकर अनुभूति की गई है। इस आधार पर पाणिनी कहते हैं, आत्मा वह मूल आधार है जहां से ध्वनि उत्पन्न होती है। वह इसका पहला रूप है। यह अनुभूति का विषय है। किसी यंत्र के द्वारा सुनाई नहीं देती। ध्वनि के इस रूप को परा कहा गया।
आगे जब आत्मा, बुद्धि तथा अर्थ की सहायता से मन: पटल पर कर्ता, कर्म या क्रिया का चित्र देखता है, वाणी का यह रूप पश्यन्ती कहलाता है, हम जो कुछ बोलते हैं, पहले उसका चित्र हमारे मन में बनता है। इस कारण दूसरा चरण पश्यन्ती है।
इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाला ध्वनि का बुद्बुद् उत्पन्न करता है। वह बुद्बुद् ऊपर उठता है तथा छाती से नि:श्वास की सहायता से कण्ठ तक आता है। वाणी के इस रूप को मध्यमा कहा जाता है। ये तीनों रूप सुनाई नहीं देते हैं। इसके आगे यह बुद्बुद् कंठ के ऊपर पांच स्पर्श स्थानों की सहायता से सर्वस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में वाणी के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही सुनाई देने वाली वाणी वैखरी कहलाती है और इस वैखरी वाणी से ही सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, जीवन व्यवहार तथा बोलचाल की अभिव्यक्ति संभव है।
वाणी की अभिव्यक्ति
यहां हम देखते हैं कि कितनी सूक्ष्मता से उन्होंने मुख से निकलने वाली वाणी का निरीक्षण किया तथा क से ज्ञ तक वर्ण किस अंग की सहायता से निकलते हैं, इसका उन्होंने जो विश्लेषण किया वह इतना विज्ञान सम्मत है कि उसके अतिरिक्त अन्य ढंग से आप वह ध्वनि निकाल ही नहीं सकते हैं।
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।
प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है।
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