विदेशों में स्वर साधना की पद्धति
(the system of vocal practicing in foreign)
ईसाई धर्म के प्रचार के साथ ही पश्चिम (west) में भी कण्ठ-संस्कार (voice culture) या कण्ठ साधना का चलन शुरू हो गया था शरीर विज्ञानियों की सहायता से उन्हें कण्ठ की रचना का ज्ञान हो गया था, किन्तु ध्वनि-निर्माण और उससे उत्पन्न गुण-दोषों के विषय में वे उस समय अनभिज्ञ थे। वैज्ञानिक संगीतकारों में अर्नेस्ट जी० व्हाइट, एच ० एच ० अलमबर्ट, ऐमिल बैंके, तथा जे ० लुइस अर्टन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इन सभी के बाद कंठ संस्कार के बारे में सर्वाधिक उपयोगी सिद्धांत का प्रतिपादन डॉ. डी ० स्टैनले ने किया आवाज़ के निर्माण में सहयोग देने वाले factors को इन्होने तीन part में devide किया है।
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- गति देने वाला (actuator)
- आंदोलन पैदा करने वाला (vibrator)
- गूँज पैदा करने वाला (resonator)
हमारे मुख से जो भी आवाज़ या ध्वनि निकलती है उसमे एक प्रकार की गूँज (resonance) होती है। डॉ ० स्टैनले ने बताया है कि गूँज ही उचित आवाज़-निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। सृष्टि (nature) ने हमारे लिए शरीर में कुछ गुंजन कक्ष (resonating cavities) बनायीं हैं वो हैं ---
मुख (mouth), नासा-विवर (nasa cavity), सर में स्थित खोखले भाग (head sinuses), फैरिंक्स (pharynx) जिसमे नैज़ल (nasal) ओरल (oral) तथा लैरिंजियल फैरिंक्स (laryngeal pharynx) आते हैं।
जब वायु आंदोलित होकर स्वर-यंत्र से बाहर निकलती है तो वह नाक आदि से सह-आंदोलित होकर मुख द्वारा बाहर निकलती है और इसी कारण आवाज़ में गूँज पैदा होती है।
पाश्चात्य देशों में कण्ठ साधना के लिए के बहुत विचार (research) हुआ है किसी भी तरह की आवाज़ को परिष्कृत करने के लिए वहां बड़े ही वैज्ञानिक (scientific) ढंग से परिश्रम किया जाता है और यह भी वर्गिकरण किया जाता है कि कौन सी आवाज़ किस प्रकार की गायन पद्धति (vocal pattern) को अपनाने के लिए ज़्यादा ठीक है।
हालांकि भारत में इस विषय पर बहुत पहले से ही काम किया जाता रहा है। इसका प्रमाण पुरातन संगीत ग्रन्थ एवं कुछ धार्मिक ग्रन्थ भी देते हैं।
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