बहुत ही रोचक विषय है कि राग क्या है, स्वर की साधना क्या है। गाना बजाना सबको पसंद है लोग सीखते भी हैं और मौका लगते ही किसी कार्यक्रम में गाने से नहीं चूकना चाहते, फिल्म संगीत में पुराने गाने रागों पर ही आधारित होते थे इसीलिए आज भी सब पुराने गानो के दीवाने हैं,
गाना गाने के लिए ज़रूरी नहीं के आपको क्लिष्ट और कठिन रागों का ज्ञान होना ही चाहिए। रागों का ज्ञान हो या न हो सुर का ज्ञान तो होना ही चाहिए यदि थोड़ा बहुत भी सुर का ज्ञान है तो थोड़े दिन तक एक कुशल गुरु के (guideline) मार्गदर्शन में गायन सीखा जा सकता है। और धीरे धीरे रागों का भी ज्ञान हो जाता है।
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सृष्टि की उत्पत्ति का मूल "वाक् " को माना गया है। वाक् के चार प्रकार होते हैं --- परा, पश्यन्ति,मध्यमा और वैखरी इसी वाक् को भारतीय वाङ्गमय में शब्द, नाद आदि संज्ञाओं से निर्दिष्ट किया जाता है वाक् के आधार पर ही पूरे संसार का व्यवहार परिचालित होता है वाक् के दो रूप होते हैं। नादात्मक और वर्णात्मक। नादात्मक वाक् आवेग रूप चित्तवृत्ति का सूचक होता है और वर्णात्मक वाक् वर्ण से सम्बंधित होने के कारण विचार (idea ) का निदेशक होता है। जिस प्रकार भावों के आवेग में अश्रु, पुलक, कम्प इत्यादि भाव बिना किसी प्रयत्न के स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं उसी प्रकार हर्ष, शोक, क्रोध आदि के आवेश में इन चित्तवृत्तियों की सूचक ध्वनियाँ मनुष्य के मुंह से स्वतः ही निकल पड़ती हैं। इसी प्रकार की ध्वनियाँ संगीत के मूल में भी हैं।
मानव शरीर को 'गात्रवीणा' या 'शारीरीवीणा' भी कह जाता है। जब शरीर से कोई ध्वनि निकलती है तो उसकी भी वही प्रक्रिया होती है जो कि एक वाद्य के द्वारा संपन्न होती है। शरीर से निकलने वाली ध्वनि को 'शब्द' तथा वाद्य से निकलने वाली 'ध्वनि' को स्वर कहा जाता है।
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कण्ठ - संस्कार, स्वर - साधना या कण्ठ - साधना को अंगेजी में वॉइस कल्चर ( voice culture) कहते हैं।
इसको परिभाषित करते हुए कहा गया है कि "properly trained voice is useful for music"
अर्थात अच्छी प्रकार से परिष्कृत की गई संगीत के लिए उपयोगी होती है। मनुष्य की आवाज़ मोटी हो,पतली हो, कर्कश हो या जैसी भी क्यों न हो उसको कड़े परिश्रम से मधुर बनाया जा सकता है। कुछ लोग मेरे पास आते हैं और कहते हाँ की sir मेरी आवाज़ ख़राब है या कर्णकटु है अच्छी नहीं है तो मेरा उनको यही जवाब होता है कि ये बात सही है कि हर मनुष्य सुर लेकर पैदा नहीं होता लेकिन आवाज़ लेकर हर मानव पैदा होता है निपुण गुरु के दिशा निर्देशन में प्रत्येक व्यक्ति सुरीला हो सकता है ये बात अलग है कि किसी को कम समय लगता है तो किसी को अधिक।
अतः
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान।।
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वैदिक काल में जब छोटे बच्चो को वेद पाठ की शिक्षा दी जाती थी तब उसी के माध्यम से उनका कण्ठ संस्कारित व सुरीला हो जाया करता था उदात्त (ऊँचा), अनुदात्त (नींचा), और स्वरित (सम) स्वरों के प्रयोग द्वारा उच्चारित किये जाने वाले यन्त्र तभी सार्थक हुआ करते थे, जब उन्हें निश्चित ध्वनियों पर, निश्चित परिमाण में और निश्चित बलय-घातों द्वारा प्रयुक्त किया जाता था। ध्वनि विज्ञानं से सम्बंधित सभी तथ्य सामगान में निहित थे, इसलिए भारतीय परंपरा में कण्ठ-संस्कार या स्वर साधना के लिए किसी अलग शास्त्र के विकसित करने की आवश्यकता ही नहीं समझी गई।
'ॐ ' के उच्चारण से लय व्यवस्थित होता था तथा स्वर की ऊर्जा और गति नियंत्रित होकर गायन को प्रभावशाली बनती थी।
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संगीत के घरानों के विकास के साथ साथ अलग अलग तरीके से सुर के विकास की परम्पराएं विकसित हुईं। किराना घराने में आवाज़ की मधुरता को बनाये रखने के लिए खुली आवाज़ के मुक़ाबले बनावटी आवाज़ को लगाने पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया आगरा घराने में ध्रुपद ज़्यादा चलन था। उसके लिए आवाज़ को ज़्यादा दमदार बनाने पर बल दिया गया। जयपुर घराने की गग्यकी में लयकारी की प्रधानता ज़्यादा होने की वजह से उसमे लय पर विशेष ध्यान दिया गया अतः विभिन्न लय के पलटो का अभ्यास करकर आवाज़ लगाना इस की खासियत रही ग्वालियर घराने में बंदिशों और तानों की पृकृति के अनुसार कण्ठ - साधना की आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाने लगा।
अतः निष्कर्ष (conclusion) रूप में हम कह सकते हैं कि जितने भी घराने बने उतने ही कण्ठ संस्कार या स्वर साधना या आवाज़ लगाने के तरीके से सम्बंधित pattern या पद्धतियां (systems) भी विकसित हुए।
लकिन तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय (indian) कण्ठ - संस्कार का मूल (root) 'ओङ्कार' की ध्वनि में निहित है, जो कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्राण है
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ये सभी जानकरियां मेरे अपने निजी ज्ञान, अनुभव, पूज्य गुरुओं की कृपा, विद्वतजन,कलाकुशल मित्र तथा वरिष्ठ (senioir) संगीतकारों, उस्तादों से प्राप्त ज्ञान व उनके सान्निध्य में रहने के कारण उत्पन्न विवेक का परिणाम हैं व पूर्व में संगीत की कक्षाओं के दौरान पठित कुछ दुर्लभ पुस्तकों से अर्जित ज्ञान है जिनके संपादक व लेखकों का ह्रदय से धन्यवाद और आभार जीवन पर्यन्त रहेगा, जिसको मैंने कई वर्षों के परिश्रम के उपरांत प्राप्त किया है। उपरोक्त देवतुल्यों से अनुमति पश्चात् ये जानकारियां आपसे साझा (share) कर रहा हूँ। मेरे जीवन का लक्ष्य प्रत्येक कला प्रेमी तक सही और तार्किक जानकारी पहुँचाना है धनोपार्जन करना नहीं अतः संगीत गुरु ब्लॉग पर आप संगीत ज्ञान जिज्ञासुओं का करबद्ध हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।
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